Bhagwad Geeta CH 05. – Our understanding-DS Joyride Life 23rd Nov to 3rd Dec 2020

Insight-Understanding-गहरी सोच
Ch05: Karm Sanyas yog – attain peace
Renounce the ego of individuality and rejoice in the bliss of Infinity
Ch 3,4,5 of BG are exclusively devoted to understanding & adopt right
Methodology of doing actions – Karma. How Karma is closely associated, essentially and influenced from Knowledge and Sanyas are dealt in Ch 4. Further considering importance of Knowledge and renunciation in Karma the 5th Ch. Is here.
What to adopt as अनास्क्यत भाव (त्याग- renunciation) means not to carry desire for fruits, doer ship, ownership of results –not to adopt. आसक्ति means Rag, Dwesh, Moha, Lobh, Ahankar.
The Bhagavad Gita, an ancient sacred text of India is regarded universally as the prime source of spiritual knowledge and inspiration for the humankind. Spoken directly by Lord Sri Krishna to His intimate friend Arjuna, the Bhagavad Gita’s seven hundred verses provide a definitive guide to the science of self-realization. No other book reveals, in such a lucid and profound way, truths like the Bhagavad Gita does. The Bhagavad Gita which is also known as the Divine Song is unique in many ways.

*श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय पाँचवें का सार*
*कर्म से विकर्म की प्राप्ति , जिसका अर्थ है भगवान के दिए ज्ञान को प्राप्त कर के कर्म करना और उन कर्मों से कुछ ऐसा कर जाना जिससे विशेष कर्म संभव हो जैसे वैज्ञानिक स्थिर होकर सामाजिक कल्याण के लिए कुछ ना कुछ नई खोज करते हैं वह अपने इस कर्म में न तो अपने विषय में सोचते हैं और ना ही अपने कर्म के फल की चिंता से यहां मतलब है कि वह नहीं जानते कि उनके प्रयोग सफल होंगे या नहीं पर फिर भी वह निरंतर प्रयास करते हैं।*
*अर्जुन कहते हैं कि प्रभु आप सन्यास से बेहतर कर्म को बताते हैं फिर आप सन्यास की विशेषता भी बताते हैं जिससे प्रभु मैं मोहित हो गया हूं कि मैं कौन सा मार्ग चुनू।*
*श्री कृष्ण बताते हैं कि सन्यास योग और कर्म योग दोनों ही फायदा पहुंचाते हैं। लेकिन सन्यास योग कठिन मार्ग है। कर्म योग ही श्रेष्ठ है क्योंकि कर्म योग किसी भी परिस्थिति में किया जा सकता है। जो पुरुष ईर्ष्या नहीं करता, गुस्सा नहीं करता, ना कुछ पाने की इच्छा होती है और वह ज्ञान द्वारा परब्रह्म को जान जाता है तो ऐसा मनुष्य सन्यासी ही होता है।*
*कृष्ण उन लोगों को मूर्ख बताते हैं जो लोग सन्यास और कर्म योग का अलग-अलग फल बताते हैं। सिर्फ भगवा कपड़ा पहनने से सन्यास नहीं होता। चाहे सन्यास योग हो या कर्म योग का दोनों ही रास्ते आपको भगवान की ओर ले जाएंगे , जिससे आपको परमधाम की प्राप्ति होगी । हर समय पूजा करना देवी देवताओं को भेटे चढ़ाना ऐसे लोगों को भगवान मूर्ख पाखंडी बता रहे हैं। भगवान के अनुसार परिवार व कर्म कर्तव्य में रहकर निष्काम कर्म करना चाहिए अर्थात अपने कर्तापन को छोड़कर अपनी इंद्रियों को काबू कर, बिना उसके फल की इच्छा कर, भगवान को समर्पित होकर कर्म करना चाहिए।*
*सन्यासी और एक आम व्यक्ति में अंतर:- भगवान कहते हैं कि सभी जीवो की आत्मा मुझसे ही निकली है अर्थात वह मैं ही हूं और उसी को जानना संपूर्ण है । सन्यासी वह है जो ज्ञान को समझता है जीता है,श्वास भी लेता है, खाता भी है और जीवनयापन की सभी क्रियाएं भी करता है जो जीने के लिए आवश्यक होती हैं। किंतु वह जानता है कि यह जितनी भी क्रियाएं हो रही है वह करने वाला परमात्मा ही है । इसके विपरीत अहंकारी सोचता है कि यह सब करने वाला मैं हूँ । उदाहरण से समझते हैं– आप 100 करोड़ के मालिक हैं विलासिता की हर वस्तु है और मान लीजिए आप भोजन करने बैठे उसी वक्त आपके पेट में दर्द होना शुरू हो जाए तो यह 100 करोड़ की ताकत आपको उस समय भोजन करने की शक्ति दे पाएगी ? तो यह बहुत स्पष्ट है कि चाहे राजा हो या साधु बिना परमेश्वर की इच्छा से कुछ नहीं कर सकता । प्रभु की इच्छा के बिना एक पत्ता नहीं हिलता , फर्क यह है सन्यासी समझता है अहंकारी नहीं।*
*कर्मयोगी कौन है :- कर्म योगी अंदर से शांत होता है क्योंकि वह भगवान को जान चुका होता है । भगवान को पाने के लिए वह सभी भौतिक वस्तुओं का त्याग कर देता है लेकिन उसके विपरीत अहंकारी व्यक्ति दुनियादारी में अपने यश की चर्चा करता, लोग लालच में दिखावा करता , और गलत काम करता है । कुछ लोग तर्क देते हैं कि हम कैसे दुनियादारी से बचें , जिम्मेदारी से बचें क्योंकि जिस दुनिया में हम रहते हैं उस दुनिया में कर्म योगी और सन्यासी बनना बहुत मुश्किल है । अब भगवान इन तर्क देने वालों का खंडन करते हैं और बताते हैं कि मनुष्य को कमल के फूल के जैसे होना चाहिए कीचड़ में खिलते हुए भी स्वच्छ और पवित्र रहता है । उसी प्रकार संसार रूपी कीचड़ में हमें भी दुनियादारी के कर्म कर्तव्य को निष्काम भाव से पूरा करना चाहिए ।*
*स्वभाव: – इंसान अपने स्वभाव यानी प्रकृति के अनुसार काम करता है । तो हमें अपना स्वभाव जानना चाहिये । अगर वह बुरा है तो उस पर नियंत्रण कर हमें भगवान के ज्ञान अनुसार कर्म करना चाहिए क्योंकि कृष्ण के अनुसार जीत उसी की होती है जो अपने स्वभाव पर काबू कर लेता है जैसे प्रकाश होने पर अंधेरा भाग जाता है उसी प्रकार भगवान के ज्ञान की ज्योति से स्वभाव का परिवर्तन भी होता है।*
*समभाव से देखना :- मनुष्य को सभी जीवो को एक समान भाव से देखना चाहिए । कुत्ते और गाय , चांडाल और ब्राह्मण में फर्क नहीं करना दोनों को आत्मा रूप में देखना।*
*ज्ञान की प्राप्ति कैसे करें: – ज्ञान की प्राप्ति बहुत सरल है । भगवान के अनुसार अति को रोके , मन को काबू करें , अपने काम- क्रोध पर काबू करके संयम से निष्काम कर्म करें । असली ज्ञान यही है । भगवान बताते हैं कि ध्यान के माध्यम से ज्ञान को समझें, दोनों आंखों को माथे और नाक के बीच में केंद्रित करके ध्यान करना चाहिए । यदि हम नियमअनुसार प्रतिदिन ध्यान करें तो हम अपनी इंद्रियों पर विजय पा सकते हैं । ऐसा व्यक्ति त्याग कर भगवान के कहे मार्ग पर चलने योग्य बन जाता है । और कृष्ण कहते हैं कि मुझे ऐसे ही लोगों के होने का एहसास होता है , क्योंकि वह भक्ति मार्ग पर चलने के योग्य होते हैं इस प्रकार ‘वह मुझे और मैं उन्हें’ प्राप्त करता हूं ।*
*हरे कृष्ण*
*श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय पाँचवें का सार*
*कर्म से विकर्म की प्राप्ति , जिसका अर्थ है भगवान के दिए ज्ञान को प्राप्त कर के कर्म करना और उन कर्मों से कुछ ऐसा कर जाना जिससे विशेष कर्म संभव हो जैसे वैज्ञानिक स्थिर होकर सामाजिक कल्याण के लिए कुछ ना कुछ नई खोज करते हैं वह अपने इस कर्म में न तो अपने विषय में सोचते हैं और ना ही अपने कर्म के फल की चिंता से यहां मतलब है कि वह नहीं जानते कि उनके प्रयोग सफल होंगे या नहीं पर फिर भी वह निरंतर प्रयास करते हैं।*
*अर्जुन कहते हैं कि प्रभु आप सन्यास से बेहतर कर्म को बताते हैं फिर आप सन्यास की विशेषता भी बताते हैं जिससे प्रभु मैं मोहित हो गया हूं कि मैं कौन सा मार्ग चुनू।*
*श्री कृष्ण बताते हैं कि सन्यास योग और कर्म योग दोनों ही फायदा पहुंचाते हैं। लेकिन सन्यास योग कठिन मार्ग है। कर्म योग ही श्रेष्ठ है क्योंकि कर्म योग किसी भी परिस्थिति में किया जा सकता है। जो पुरुष ईर्ष्या नहीं करता, गुस्सा नहीं करता, ना कुछ पाने की इच्छा होती है और वह ज्ञान द्वारा परब्रह्म को जान जाता है तो ऐसा मनुष्य सन्यासी ही होता है।*
*कृष्ण उन लोगों को मूर्ख बताते हैं जो लोग सन्यास और कर्म योग का अलग-अलग फल बताते हैं। सिर्फ भगवा कपड़ा पहनने से सन्यास नहीं होता। चाहे सन्यास योग हो या कर्म योग का दोनों ही रास्ते आपको भगवान की ओर ले जाएंगे , जिससे आपको परमधाम की प्राप्ति होगी । हर समय पूजा करना देवी देवताओं को भेटे चढ़ाना ऐसे लोगों को भगवान मूर्ख पाखंडी बता रहे हैं। भगवान के अनुसार परिवार व कर्म कर्तव्य में रहकर निष्काम कर्म करना चाहिए अर्थात अपने कर्तापन को छोड़कर अपनी इंद्रियों को काबू कर, बिना उसके फल की इच्छा कर, भगवान को समर्पित होकर कर्म करना चाहिए।*
*सन्यासी और एक आम व्यक्ति में अंतर:- भगवान कहते हैं कि सभी जीवो की आत्मा मुझसे ही निकली है अर्थात वह मैं ही हूं और उसी को जानना संपूर्ण है । सन्यासी वह है जो ज्ञान को समझता है जीता है,श्वास भी लेता है, खाता भी है और जीवनयापन की सभी क्रियाएं भी करता है जो जीने के लिए आवश्यक होती हैं। किंतु वह जानता है कि यह जितनी भी क्रियाएं हो रही है वह करने वाला परमात्मा ही है । इसके विपरीत अहंकारी सोचता है कि यह सब करने वाला मैं हूँ । उदाहरण से समझते हैं– आप 100 करोड़ के मालिक हैं विलासिता की हर वस्तु है और मान लीजिए आप भोजन करने बैठे उसी वक्त आपके पेट में दर्द होना शुरू हो जाए तो यह 100 करोड़ की ताकत आपको उस समय भोजन करने की शक्ति दे पाएगी ? तो यह बहुत स्पष्ट है कि चाहे राजा हो या साधु बिना परमेश्वर की इच्छा से कुछ नहीं कर सकता । प्रभु की इच्छा के बिना एक पत्ता नहीं हिलता , फर्क यह है सन्यासी समझता है अहंकारी नहीं।*
*कर्मयोगी कौन है :- कर्म योगी अंदर से शांत होता है क्योंकि वह भगवान को जान चुका होता है । भगवान को पाने के लिए वह सभी भौतिक वस्तुओं का त्याग कर देता है लेकिन उसके विपरीत अहंकारी व्यक्ति दुनियादारी में अपने यश की चर्चा करता, लोग लालच में दिखावा करता , और गलत काम करता है । कुछ लोग तर्क देते हैं कि हम कैसे दुनियादारी से बचें , जिम्मेदारी से बचें क्योंकि जिस दुनिया में हम रहते हैं उस दुनिया में कर्म योगी और सन्यासी बनना बहुत मुश्किल है । अब भगवान इन तर्क देने वालों का खंडन करते हैं और बताते हैं कि मनुष्य को कमल के फूल के जैसे होना चाहिए कीचड़ में खिलते हुए भी स्वच्छ और पवित्र रहता है । उसी प्रकार संसार रूपी कीचड़ में हमें भी दुनियादारी के कर्म कर्तव्य को निष्काम भाव से पूरा करना चाहिए ।*
*स्वभाव: – इंसान अपने स्वभाव यानी प्रकृति के अनुसार काम करता है । तो हमें अपना स्वभाव जानना चाहिये । अगर वह बुरा है तो उस पर नियंत्रण कर हमें भगवान के ज्ञान अनुसार कर्म करना चाहिए क्योंकि कृष्ण के अनुसार जीत उसी की होती है जो अपने स्वभाव पर काबू कर लेता है जैसे प्रकाश होने पर अंधेरा भाग जाता है उसी प्रकार भगवान के ज्ञान की ज्योति से स्वभाव का परिवर्तन भी होता है।*
*समभाव से देखना :- मनुष्य को सभी जीवो को एक समान भाव से देखना चाहिए । कुत्ते और गाय , चांडाल और ब्राह्मण में फर्क नहीं करना दोनों को आत्मा रूप में देखना।*
*ज्ञान की प्राप्ति कैसे करें: – ज्ञान की प्राप्ति बहुत सरल है । भगवान के अनुसार अति को रोके , मन को काबू करें , अपने काम- क्रोध पर काबू करके संयम से निष्काम कर्म करें । असली ज्ञान यही है । भगवान बताते हैं कि ध्यान के माध्यम से ज्ञान को समझें, दोनों आंखों को माथे और नाक के बीच में केंद्रित करके ध्यान करना चाहिए । यदि हम नियमअनुसार प्रतिदिन ध्यान करें तो हम अपनी इंद्रियों पर विजय पा सकते हैं । ऐसा व्यक्ति त्याग कर भगवान के कहे मार्ग पर चलने योग्य बन जाता है । और कृष्ण कहते हैं कि मुझे ऐसे ही लोगों के होने का एहसास होता है , क्योंकि वह भक्ति मार्ग पर चलने के योग्य होते हैं इस प्रकार ‘वह मुझे और मैं उन्हें’ प्राप्त करता हूं ।*
*हरे कृष्ण*



श्रीमद्भगवद्गीताअध्याय 5 कर्मसंयासयोगप्रश्न:- कर्म किसको कहते हैं ?उत्तर:- *कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्था में क्षण मात्र भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता, क्योंकि वह हर पल मन, शरीर, और वाणी से कुछ ना कुछ कर रहा है। जो कुछ भी मनुष्य अपने जीवन में करता है वह सब कर्म है। हमारी आज की क्रियाएं पिछले जन्म यानी कि प्रारब्ध के कर्मों के फल स्वरुप है इसलिए हमारे जीवन में अभी हमक जो कुछ भी दिखाई देता है वह सब हमारे पहले कर्मो (प्रारब्ध) का फल है। हमारे कर्मों के कारण ही हम लगातार जन्मोजन्म के चक्कर में आते हैं। हमारे सभी सुख और दुख के अनुभव हमारे पूर्व जन्मों के इकट्ठे किए गए कर्मों का परिणाम है। कभी भी पापकर्मों को अन्य पुण्यकर्मों के द्वारा मिटाया नहीं जा सकता। हमें इन दोनों के अलग-अलग परिणाम भुगतने पड़ते हैं। जो कर्म बीज पिछले जन्मों में बोए थे, उन कर्मों के फल इस जन्म में आते हैं। प्रश्न यह है कि यह फल कौन देता होगा ? भगवान ? नहीं, जब उपयुक्त परिस्थितियां परिपक्व हो जाती हैं तब प्राकृतिक रूप से हमें अपने तीनों गुणों यानी कि सत्व, रज, तम के स्वभाव रूप में हमें कर्म फल का अनुभव होता है। कर्म फल को सिर्फ आत्मज्ञान होने के बाद ही बदला जा सकता है। यदि अगर एक बार हम अपने आत्मस्वभाव में आ जाए तो नया कर्म बंधन नहीं होगा और यह तब होगा जब कोई ज्ञानी पुरुष आपको अपने वास्तविक स्वरूप की पहचान करा दें। उसके बाद नए कर्म नहीं बनते हैं और पुराने कर्म लगातार खाली होते जाते हैं जब सभी कर्म पूरे हो जाते हैं तब मोक्ष की प्राप्ति होती है।
यह अध्याय पिछले अध्याय 2 से 4 तक का सार रूप है।2. मनुष्य बिना कर्म के रह ही नही सकता। गीता सोचने, विचारने को भी कर्म कहती है। 3.53. सांख्य और कर्म योग का फल एक ही है। चाहे शरीर, संसार से वैराग्य करें अथवा निष्काम भाव से कर्मयोग करें, दोनों का फल एक ही होगा। 4. प्रत्येक परिस्थिति का सदुपयोग करने से कल्याण हो जाता है।5. मनुष्य सदा रहने वाला सुख चाहता है वह वास्तविक आनन्द है किंतु भूल से उसकी प्राप्ति नाशवान संसार मे खोज रहा है किन्तु फलस्वरूप मिलता दुख ही है। 5.22 अतः विवेकी इनमें रमण नहीं करता।6. भगवान सभी तपों के, यज्ञों के भोक्ता हैं सभी लोकों के ईश्वर हैं। ऐसा जो जान लेता है वह शांति को प्राप्त हो जाता है।
श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 5 कर्मसंयासयोग
प्रश्न:- कर्म किसको कहते हैं ?
उत्तर:- *कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्था में क्षण मात्र भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता, क्योंकि वह हर पल मन, शरीर, और वाणी से कुछ ना कुछ कर रहा है। जो कुछ भी मनुष्य अपने जीवन में करता है वह सब कर्म है। हमारी आज की क्रियाएं पिछले जन्म यानी कि प्रारब्ध के कर्मों के फल स्वरुप है इसलिए हमारे जीवन में अभी हम क जो कुछ भी दिखाई देता है वह सब हमारे पहले कर्मो (प्रारब्ध) का फल है। हमारे कर्मों के कारण ही हम लगातार जन्मोजन्म के चक्कर में आते हैं। हमारे सभी सुख और दुख के अनुभव हमारे पूर्व जन्मों के इकट्ठे किए गए कर्मों का परिणाम है। कभी भी पापकर्मों को अन्य पुण्यकर्मों के द्वारा मिटाया नहीं जा सकता। हमें इन दोनों के अलग-अलग परिणाम भुगतने पड़ते हैं। जो कर्म बीज पिछले जन्मों में बोए थे, उन कर्मों के फल इस जन्म में आते हैं। प्रश्न यह है कि यह फल कौन देता होगा ? भगवान ? नहीं, जब उपयुक्त परिस्थितियां परिपक्व हो जाती हैं तब प्राकृतिक रूप से हमें अपने तीनों गुणों यानी कि सत्व, रज, तम के स्वभाव रूप में हमें कर्म फल का अनुभव होता है। कर्म फल को सिर्फ आत्मज्ञान होने के बाद ही बदला जा सकता है। यदि अगर एक बार हम अपने आत्मस्वभाव में आ जाए तो नया कर्म बंधन नहीं होगा और यह तब होगा जब कोई ज्ञानी पुरुष आपको अपने वास्तविक स्वरूप की पहचान करा दें। उसके बाद नए कर्म नहीं बनते हैं और पुराने कर्म लगातार खाली होते जाते हैं जब सभी कर्म पूरे हो जाते हैं तब मोक्ष की प्राप्ति होती है।
1.यह अध्याय पिछले अध्याय 2 से 4 तक का सार रूप है।
2.मनुष्य बिना कर्म के रह ही नही सकता। गीता सोचने, विचारने को भी कर्म कहती है। 3.5 3.सांख्य और कर्म योग का फल एक ही है। चाहे शरीर, संसार से वैराग्य करें अथवा निष्काम भाव से कर्मयोग करें, दोनों का फल एक ही होगा।
4.प्रत्येक परिस्थिति का सदुपयोग करने से कल्याण हो जाता है।
5.मनुष्य सदा रहने वाला सुख चाहता है वह वास्तविक आनन्द है किंतु भूल से उसकी प्राप्ति नाशवान संसार मे खोज रहा है किन्तु फलस्वरूप मिलता दुख ही है। 5.22 अतः विवेकी इनमें रमण नहीं करता।
6.भगवान सभी तपों के, यज्ञों के भोक्ता हैं सभी लोकों के ईश्वर हैं। ऐसा जो जान लेता है वह शांति को प्राप्त हो जाता है।
श्रीमद्भगवद्गीता
८.८अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ।।
हे पार्थ ! जो व्यक्ति मेरा स्मरण करने में अपना मन निरंतर लगाये रखकर अविचलित भाव से भगवान् के रूप में मेरा ध्यान करता है, वह मुझको अवश्य ही प्राप्त होता हैं ।
श्रीमद्भगवद्गीता
८.९कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः। सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्ण तमसः परस्तात् ।।मनुष्य को चाहिए कि परमपुरुष का ध्यान सर्वज्ञ, पुरातन, नियन्ता , लघुतम से भी लघुतर , प्रत्येक का पालनकर्ता , समस्त भौतिक बुद्धि से परे , अचिन्त्य तथा नित्य पुरुष के रूप में करे। वे सूर्य की भाँति तेजवान है और इस भौतिक प्रकृति से परे दिव्य रूप है।

Ans To Ch05 Q1.
Arjuna is interested in knowing how either Yog of Knowledge ( सांख्या योग)Yoga of Action ( कर्मा योग) can be good for me.(1)Now Bhagwan answers Either by following Sankhya Yog or Karam yog no difference in results. Results into achievement viz; God realization or Liberation is the same. ( 4,5)Although Yoga of Knowledge and Yoga of Action leads to Bliss, Of the two however, the yoga of Action , being easier of practice., is superior to yoga of knowledge. (2)Yoga of knowledge is based on Sankhya a mathematics or analytical method considering whatever is happening in true sense is all by nature.
जगमिथ्या – ब्रह्मा सत्या Without Karmayoga , however Sankhyayoga i.e., renunciation of doership in relation to all activities of the mind, senses and body is difficult to accomplish even our living ; whereas Karamyogi while performing all activities is easier to drop doer ship, proud of possession considering it is the grace of god all has happened through the help of nature and belongs to GOD. (6)
Ans to Q 2 Ch05
Who Is Sankhya Yogi? (8,9,10)
The Sankhyayogi ( तत्व को जानने वाला OR ब्रहम वेद)who knows the reality of things, All actions which are carried by Body, Mind, Senses, Intellect, Pran not done by Self- Atma which is free from doer ship. All activities are carried by Nature- Prakrti. Even though seeing, hearing, touching, smelling ,hearing, drinking, walking, sleeping, Breathing, speaking etc. he does nothing.“ He who acts offering all actions to God, shaking off attachments ( काम, क्रोध,लोभा, मोहा) remains untouched by sin, as lotus leaf by mud. He in true sense is Sanyasi – Sankhyayogi.
Important:1. Karamyogi offers all his karmas or working or results as a service to human beings, सर्वभूतहिते रता:
2. Sankhyayogi credit / offerings are to Nature. (प्रकृति के अर्पणा)
3. भक्ति योगी भगवान को अर्पण – Bhaktyogi does all for God by God
Who Is Karam YOGI? ( 7,11,12)
a)The Karamyogi who has fully conquered his mind and mastered his senses, whose heart is pure, who has identified with self of all beings- Samta state (viz; God), remains untainted, even though performing Action. – करमयोगि करम करते हुए लिपत नहीं होता
b)The karma yogi perform actions only with their senses, mind, intellect and body as well without the feeling of mine in respect of them and shaking off attachments, simply for the sake of purification. c)Offering the fruit of action to God, the KaramYOGI attains ever lasting peace in the form of God-realisation; Whereas he who works with selfish motive, being attached to the fruits of actions through desire gets tied down.
Yoga Of Knowledge
SANKHYA OR GYAN Samkhya means , mathematics or analytical solving the issue and adopts a consistent dualism of the matter Purusha & Prakarti. But in our attitude through knowledge the that material world does not exist.
JAGAT MITHYA-BRHAM SATYA
Sankhya is the highest knowledge and this is why Krishna gives it first. If you understand Sankhya it will be easier to understand Anaskt Bhav in Karma is renunciation.
Let go how?
There are two ways to it1. Either you just trust this holy knowledge as the eternal truth – This is sankhya. Mukti through simply knowing.
What is to be known?
Krishnamurthy was a great proponent of this philosophy. Ashtavakra Geeta is the best book on this philosophy.2. Or you are not the kind who would just hear and believe. You want to actually experience that there is no death for you. Then you take Yoga of Karma.
1.इस अध्याय का नाम कर्म सन्यास योग क्यों है?सन्यास का अर्थ स्त्री, कुटुंब धन/संपत्ति को छोड़ना नहीं है प्रत्युत कर्तव्य पालन तो अवश्य ही करना है पर राग -द्वेष नहीं करना है। ऐसा मनुष्य ग्रहस्थ में रहता है भी सन्यासी है।इससे क्या होगा?इससे अन्तःकरण निर्मल होगा। बस! यहाँ तक हमारे करने का विभाग है या कहें काम है। (गीता 5.3 से 5.7 तक)इसके बाद कल्याण करने का काम हमारा नहीं है वो भगवान करेंगे। करना ही पड़ेगा। वो करते ही हैं। तुलसी कहते हैं-निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।इसका अर्थ हम ये समझ सकतें हैं कि भगवान हम जीवों से यही अपेक्षा करते हैं बाकी काम वो कर देंगे।
2.गीता आसक्ति व कर्मफल में आसक्ति के त्याग को भी अंतःकरण की शुद्धि के लिए ही कहती है। (5.10 से 5.12) इससे समता आएगी व इससे स्वभाव भी सुधरेगा। बिगड़े हुए स्वभाव को ही सुधारना है। बिगड़ा हुआ स्वभाव का मतलब है भगवान से विमुखता। स्वभाव सुधरने से दैवीय सम्पत्ति स्वतः आने लगती है। (अध्याय 16)सारी कड़ियाँ एक दूसरे से जुड़ी हुई है।

Question 2 Ans:
कर्मयोगी:
जिसका मन अपने वश में है, जो जितेन्द्रिय एवं विशुद्ध अन्तःकरण वाला है और सम्पूर्ण प्राणियों का आत्मरूप परमात्मा ही जिसका आत्मा है, ऐसा कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी लिप्त नहीं होताकर्मयोग सिखाता है कि कर्म के लिए कर्म करो, आसक्तिरहित होकर कर्म करो।
कर्मयोगी इसीलिए कर्म करता है कि कर्म करना उसे अच्छा लगता है और इसके परे उसका कोई हेतु नहीं है। कर्मयोगी कर्म का त्याग नहीं करता वह केवल कर्मफल का त्याग करता है और कर्मजनित दु:खों से मुक्त हो जाता है। उसकी स्थिति इस संसार में एक दाता के समान है और वह कुछ पाने की कभी चिन्ता नहीं करता। वह जानता है कि वह दे रहा है और बदले में कुछ माँगता नहीं और इसीलिए वह दु:ख के चंगुल में नहीं पड़ता। वह जानता है कि दु:ख का बन्धन ‘आसक्ति’ की प्रतिक्रिया का ही फल हुआ करता है।
सांख्ययोगी:
तत्व को जानने वाला सांख्ययोगी तो देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूँघता हुआ, भोजन करता हुआ, गमन करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ तथा आँखों को खोलता और मूँदता हुआ भी, सब इन्द्रियाँ अपने-अपने अर्थों में बरत रही हैं- इस प्रकार समझकर निःसंदेह ऐसा मानें कि मैं कुछ भी नहीं करता हूँज्ञानयोगी संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करके अपने स्वरूपमें स्थित होता है और कर्मयोगी संसारकी वस्तु-(शरीरादि-) को संसारकी ही सेवामें लगाकर संसार से सम्बन्ध-विच्छेद करता है। कर्मयोग के बिना संन्यास अर्थात् मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाले सम्पूर्ण कर्मों में कर्तापन का त्याग प्राप्त होना कठिन है और भगवत्स्वरूप को मनन करने वाला कर्मयोगी परब्रह्म परमात्मा को शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है
Ans to Q2 of Ch05 (7-12)
The karma yogis, who are of purified intellect, and who control the mind and senses, see the Soul of all souls in every living being. Though performing all kinds of actions, they are never entangled. Those steadfast in this karma yog, always think, “I am not the doer,” even while engaged in seeing, hearing, touching, smelling, moving, sleeping, breathing, speaking, excreting, and grasping, and opening or closing the eyes. With the light of divine knowledge, they see that it is only the material senses that are moving amongst their objects. Those who dedicate their actions to God, abandoning all attachment, remain untouched by sin, just as a lotus leaf is untouched by water. The yogis, while giving up attachment, perform actions with their body, senses, mind, and intellect, only for the purpose of self-purification. Offering the results of all activities to God, the karma yogis attain everlasting peace. Whereas those who, being impelled by their desires, work with a selfish motive become entangled because they are attached to the fruits of their actions.
Ans to Q3 of Ch05
a)How Sankhya yogi behaves?-13The self-controlled Sankhyayogi, doing nothing himself and getting done by others, rests happily in GOD the embodiment of truth, Truth, Knowledge and Bliss, mentally relegating all actions to the mansion of nine gates ( the body with the nine openings as2nostrils, 2 eyes,2years, 1 mouth and 1 each secret parts.)
b)What is the role of God with both? ( 14-17 )“ The Omnipresent God does not partake the virtue or sin of anyone. God determines neither doer ship nor the doings of men, now with fruits of actions; but it is Nature alone is responsible.”(14,15 )“ Whose Ignorance has been destroyed by true knowledge of GOD, whose mind and Intellect are wholly merged in him. Now his sins are wiped out by wisdom, attains the supreme goal.” (16,17)
c). What are characteristics of Both? ( 18-21)The knowledgeable consider as equanimity –SAMDARSHI looks to all same-Whether Brahmana or elephant, Dog .18Whose mind is established in Equainimity – SAMBHAV consider Absolute is untouched by evil and is the same to all. He is established in Parmatma.19BRAHMVETA- Firm in intellect स्थिरबुधि, free from doubt, संश्यराहित, ब्रहाम्वेता does not feel perturbed (20)Having completely identified himself through meditation with Brahma enjoys eternal Bliss. (21 )
Question 4 Ans:
इन्द्रिय तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले सभी भोग दुःख उत्पन्न करने वाले ही हैं। इसलिए हे अर्जुन! इन आदि-अन्त वाले (अनित्य) भोगों में, बुद्धिमान पुरुष नहीं लिप्त होते हैं, जो मनुष्य इस शरीर का नाश होने से पूर्व ही काम-क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने में समर्थ हो जाता है, वही योगी है और वही सुखी है
Why desires are too cause of sufferings and to get happiness? (22-23 )
There is no gain other than righteous type of pure knowledge. Establishing oneself ( Karam Sanyas Yog )where he is not shaken by material gratifications. Before giving up this present body, if one is to tolerate the urges of the material senses and check the force of desire and anger, he is well situated and is happy in this world.
Ans to Q 5 Ch05
What are the characteristics of wise person.? ( 24-26)The wise persons or seers or Karam Sanyas Yogi whose sins has been purged पाप नशत हो गये whose doubts have been dispelled सनशय निवरत by knowledge, whose disciplined mind is firmly established निशचलभाव in God and whose mind is devoted for the welfare of all beings, attain in Brahma, who is all Peace. This men is free from lust and anger , who have subdued their mind and realized God, Brahma, the abode of eternal peace, is present all around.
Ans to Q6 of Ch05 ( 27-29)
However you may achieve first class knowledge- Gyani SARVANAM and trying to understand MANANAM but until is settled NIDIDHYASANAM in self with grace of God will not yield desired results. Therefore, God advises now for in brief on Meditation and full next Ch06 is Dhyan YOG.
“ Having removed all thoughts of sense objects, (Silence) having withdrawn the sense organs, (Stillness having regulated the breathing, and freed from desire, fear, anger, one should meditate ( Solitude) and focus on altar of Krishna. Such Yogi is becomes liberated.(27-28) Knowing the Krishna is receiver of all sacrifices as BHOKTA, who is the supreme lord of all the worlds, and a friend of all beings the wise man attains Peace-29.
सांख्य योग और कर्मयोग
सांख्य योग में बुद्धि की मुख्यता होती है। सांख्य योगी प्राय: अंतर्मुखी होता है। उसे ज्ञानयोगी भी कहते हैं। उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति आत्मा के आंतरिक स्वरूप को खोजने की होती है। गंभीर आध्यात्मिक चिंतन ही उसका मुख्य ध्येय है। वहीं कर्मयोग का साधक प्राय: बहिर्मुखी प्रवृत्ति का होता है। उसका झुकाव बाह्य संसार में सत्कार्य करने की ओर होता है। कर्मयोगी ऐसा व्यक्तित्व है, जिसे कर्म से प्रेम है सच्चा संन्यासी वह नहीं, जो पूर्णतया निष्क्रिय रहता है, बल्कि वह है जिसका कर्म अनासक्त भाव से किया जाता है। ज्ञानी व्यक्ति के कर्म में आत्म-भावना और कर्म फल की इच्छा का अभाव रहता है। वह मनुष्य जो अपने मन की इच्छाओं को त्याग देता है और जब उसकी आत्मा संतुष्ट रहती है, तब वह ‘स्थित प्रज्ञ’ कहलाता है। कर्मयोगी लोकमंगल के लिए निष्काम भाव से कर्म करता है। मुख्य बात यह है कि जो मनुष्य कर्मो का त्याग नहीं बल्कि कर्मफल का त्याग करता है, वह कर्म करता हुआ भी कर्म के बंधनों से नहीं बंधता। सच्चा कर्मयोगी वही है, जो मन द्वारा इंद्रियों को नियंत्रित रखता है और अनासक्त होकर कर्मेन्द्रियों को कर्म के मार्ग में लगाता है। दोनों प्रकार की निष्ठाओं का लक्ष्य एक है-मुक्ति। किंतु सांख्य योग में जहां आत्म-मुक्ति की भावना प्रबल रहती है, वहीं कर्मयोगी निष्काम कर्मो द्वारा अन्य लोगों को भी मुक्ति पथ की ओर प्रेरित करता है।
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The contents “Understanding Bhagwad Geeta
” by a group from WhatsApp DS-Geeta Joyride Life. Contributors are learning stages of Bhagwad Geeta or practitioners, as well as few teachers are contributors.
The very purpose is make Bhagwad Geeta easily understandable for worldly persons.
In no way it is an authoritarian.
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