Bhagwad Geeta CH 08. – Our Understanding-DS Joyride Life
Ch8 (28)– AkharBrahmYog , Attaining the Supreme , मृत्यू का अर्थ – मोख कैसे प्राप्त करें
This chapter can be called as a step higher knowledge of GyanVigyanYog.
Preamble:
8:3 अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते । means:
The indestructible, transcendental living entity is called Brahman, and his eternal nature is called adhyātma, the self.
Topics – Ch8 (28) – AkharBrahmYog, Attaining the Supreme
Ch07 can be called to learn Art of living through knowing Gyan- Vigyan Yog and attain Mukti Or the supreme while be on this earth. Everything is Krishna.
Ch08 Attain the supreme by learning Art of Dying.
We all on our life journey as we buy a ticket always a starting station in life is BIRTH and destination on the ticket of our journey DEATH.Let us celebrate life here as Par Villah (Jeewan Mukta) No matter, all is well – and now termination of journey (Death) to celebrate learning Art.
Topics Of Ch08
1-4 Seven q’s from Arjuna and Krishna replied.
5-8 How to remember God to attain the supreme @ ttime of death.
9-16 Proces how to remember GOD – through Yoga system.
17-22 Know we are in material world as well in spiritual world.
23-28 Attaining the supreme combing both yoga process as well Bhakti- devotion.
Ans to Q1(1-4) Ch8 What do you understand by :
Ex: Water as an element:
Braham – Water ( Nirgun-Nirakar) is an energy, imperishable,unchangeable,eternal can be called indiviusal Soul. It is the cause for effects. It is causeless cause.
Adhyatma-drop– is a science for self study essential nature or individual consciousness
Karma –Varsha– cause of the universe. It is the creative force which is the cause of existence, manifestation and sustenance of all beings.
All 1,2,3 are called GYAN – Nirguna- Para prakarti
Adhibhuta – Ice-Barf-Our body made up of five elements
as well mind, senses intellect which are perishable and changeable.
Adhideva – Cloud-Badal– vital force or Pranshakti – Life force behind all movable and immovable Objects being called hiranyagharba.
Adhiyajna –Steam – the creator cause of hiranyagarbha & presiding over all of our actions : Karamphala data.
All 4,5,6 are called VIGYAN Sagun -ApraPrakarti
Now holistic view of Param Pita Parmatma:
a) Parmatma: Brahma& Adhiyajana
b) Paraprakarti:Adhyatm, adhidev
c) Apraprakarti:Karm & Adhibhut
07th Q is How one who is bonded through Maya in material enjoyments can reach you. Unless you creat Isvara Vasna,can not remember him. He who dies with thought fixed on Me, achieve me.
Q1 Ch08 Arjuna 7 questions in verse 1,2 – Krishna reply in 3,4 as follows.*
अष्टम अध्याय श्र्लोक {1} ⬇
➡ सम्बन्ध – सातवें अध्याय में पहले से तीसरे श्लोक तक भगवान् ने अपने समग्ररूप का तत्त्व सुनने के लिये अर्जुन को सावधान करते हुए, उसके कहने की प्रतिज्ञा और जानने वालों की प्रशंसा की। फिर सत्ताईसवें श्लोक तक अनेक प्रकार से उस तत्त्व को समझाकर न जानने के कारण को भी भलीभाँति समझाया और अन्त में ब्रह्म, अध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ के सहित भगवान् के समग्ररूप को जानने वाले भक्त की महिमा का वर्णन करते हुए उस अध्याय का उपसंहार किया। उनतीसवें और तीसवें श्लोकों में वर्णित ब्रह्म, अध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ- इन छहों का तथा प्रयाणकाल में भगवान को जानने की बात का रहस्य भलीभाँति न समझने के कारण इस आठवें अध्याय के आरम्भ में पहले दो श्लोंकों मे अर्जुन उपर्युक्त सातों विषयों को समझने के लिये भगवान् से सात प्रश्न करते हैं-
🔹 अर्जुन उवाच
किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम् ।
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते।। 1 ।।
🔸 अर्जुन ने कहा- हे पुरुषोत्तम! वह ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है? कर्म क्या है? अधिभूत नाम से क्या कहा गया है और अधिदैव किसको कहते हैं।।1।।
अष्टम अध्याय श्र्लोक {2} ⬇
🔹 अधियज्ञ: कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन ।
प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभि:।। 2 ।।
🔸 हे मधूसूदन! यहाँ अधियज्ञ कौन है? और वह इस शरीर में कैसे है? तथा युक्तचित्त वाले पुरुषों द्वारा अंत समय में आप किस प्रकार जानने में आते हैं।।2।।
प्रश्न – ‘वह ब्रह्म क्या है?’ अर्जुन के इस प्रश्न का क्या अभिप्राय है?
➡ उत्तर – ‘ब्रह्म’ शब्द वेद, ब्रह्मा, निर्गुण परमात्मा, प्रकृति और ओंकार आदि अनेक तत्त्वों के लिये व्यवहृत होता है; अतः उनमें से यहाँ ‘ब्रह्म’ शब्द किस तत्त्व के लक्ष्य से कहा गया है, यह जानने के लिये अर्जुन का प्रश्न है।
➡ प्रश्न – ‘अध्यात्म क्या है?’ इस प्रश्न का क्या अभिप्राय है?
➡ उत्तर – शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, जीव और परमात्मा आदि अनेक तत्त्वों को ‘अध्यात्म’ कहते हैं। उनमें से यहाँ ‘अध्यात्म’ नाम से भगवान् किस तत्त्व की बात कहते हैं? यह जानने के लिये अर्जुन का यह प्रश्न है।
➡ प्रश्न – ‘कर्म क्या है?’ इस प्रश्न का क्या अभिप्राय है?
➡ उत्तर – ‘कर्म’ शब्द यहाँ यज्ञ-दानादि शुभकर्मों का वाचक है या क्रियामात्र काॽ अथवा प्रारब्ध आदि कर्मों का वाचक है या ईश्वर की सृष्टि-रचनारूप कर्म का? इसी बात को स्पष्ट जानने के लिये यह प्रश्न किया गया है।
➡ प्रश्न – ‘अधिभूत’ नाम से क्या कहा गया है? इस प्रश्न का क्या अभिप्राय है?
➡ उत्तर – ‘अधिभूत’ शब्द का अर्थ यहाँ पंचमहाभूत है या समस्त प्राणिमात्र है अथवा समस्त दृश्यवर्ग है या यह किसी अन्य तत्त्व का वाचक है? इसी बात को जानने के लिये ऐसा प्रश्न किया गया है।
➡ प्रश्न – ‘अधिदैव किसको कहते हैं? इस प्रश्न का क्या अभिप्राय है?
➡ उत्तर – ‘अधिदैव’ शब्द से यहाँ किसी अधिष्ठातृ-देवता विशेष का लक्ष्य है या अदृष्ट, हिरण्यगर्भ, जीव अथवा अन्य किसी का? यही जानने के लिये प्रश्न किया गया है।
➡ प्रश्न – यहाँ ‘पुरुषोत्तम’ सम्बोधन किस अभिप्राय से किया गया है।
➡ उत्तर – ‘पुरुषोत्तम’ सम्बोधन से अर्जुन यह सूचित करते हैं कि आप समस्त पुरुषों में श्रेष्ठ, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सबके अधिवष्ठाता और सर्वाधार हैं। इसलिये मेरे इन प्रश्नों का जैसा यथार्थ उत्तर आप दे सकते हैं, वैसा दूसरा कोई नहीं दे सकता।
➡ प्रश्न – यहाँ ‘अधियज्ञ’ के विषय में अर्जुन के प्रश्न का क्या अभिप्राय है?
➡ उत्तर – ‘अधियज्ञ’ शब्द यज्ञ के किसी अधिष्ठातृ-देवताविशेष वाचक है या अन्तर्यामी परमेश्वर का अथवा अन्य किसी का? एवं वह ‘अधियज्ञ’ नामक तत्त्व मनुष्यादि समस्त प्राणियों के शरीर में किस प्रकार रहता है और उसका ‘अधियज्ञ’ नाम क्यों है? इन्हीं सब बातों को जानने के लिये अर्जुन का यह प्रश्न है।
➡ प्रश्न – ‘नियतात्मभिः’ का क्या अभिप्राय है तथा अन्तकाल में आप कैसे जानने में आते हैं? इस प्रश्न का क्या अभिप्राय है?
➡ उत्तर – भगवान् ने सातवें अध्याय के तीसवें श्लोक में ‘युक्तचेतसः’ पद का प्रयोग करके जिन पुरुषों को लक्ष्य किया था, उन्हीं के लिये अर्जुन यहाँ ‘नियतात्मभिः’ पद का प्रयोग करके पूछ रहे हैं कि ‘युक्तचेतसः’ पद से जिन पुरुषों के लिये आप कह रहे हैं, वे पुरुष अन्तकाल में अपने चित्त को किस प्रकार आपमें लगाकर आपको जानते हैं? अर्थात् वे प्राणायम, जप, चिन्तन, ध्यान या समाधि आदि किस साधन से आपका यथार्थ ज्ञान प्राप्त करते हैं? इसी बात को जानने के लिये अर्जुन ने यह प्रश्न किया है।
अष्टम अध्याय श्र्लोक {3} ⬇
➡ सम्बन्ध – अर्जुन के सात प्रश्नों में से भगवान् अब पहले ब्रह्म, अध्यात्म और कर्मविषयक तीन प्रश्नों का उत्तर अगले श्लोक में क्रमशः संक्षेप से देते हैं-
🔹 अक्षरं ब्रह्मा परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते ।
भूतभावोद्भवकरो विसर्ग: कर्मसंज्ञित:।। 3 ।।
🔸 श्रीभगवान ने कहा- परम अक्षर ‘अक्षर’ अपना स्वरूप अर्थात जीवात्मा ‘अध्यात्म’ नाम से कहा जाता है तथा भूतों के भाव को उत्पन्न करने वाला जो त्याग है, वह ‘कर्म’ नाम से जाना गया है।। 3 ।।➡ प्रश्न – परम अक्षर ‘ब्रह्म’ है, इस कथन का क्या अभिप्राय है?
➡ उत्तर – अक्षर के साथ ‘परम’ विशेषण देकर भगवान् यह बतलाते हैं कि सातवें अध्याय के उनतीसवें श्लोक में प्रयुक्त ‘ब्रह्म’ शब्द निर्गुण निराकार सच्चिदानन्दघन परमात्मा का वाचक है; वेद, ब्रह्मा और प्रकृति आदि का नहीं। जो सबसे श्रेष्ठ और सूक्ष्म होता है उसी को ‘परम’ कहा जाता है। ‘ब्रह्म’ और ‘अक्षर’ के नाम से जिन सब तत्त्वों का निदेश किया जाता है, उन सबमें सबकी अपेक्षा श्रेष्ठ और पर एकमात्र सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा ही है; अतएव ‘परम अक्षर’ से यहाँ उसी परब्रह्म परमात्मा का लक्ष्य है। यह परम ब्रह्म परमात्मा और भगवान् वस्तुतः एक ही तत्त्व हैं।
➡ प्रश्न – स्वभाव ‘अध्यात्म’ कहा जाता है- इसका क्या तात्पर्य है?
➡ उत्तर – ‘स्वो भावः स्वभावः’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार अपने ही भाव का नाम स्वभाव है। जीवरूपा भगवान् की चेतन परा प्रकृति रूप आत्मतत्त्व ही जब आत्म-शब्द वाच्य शरीर, इन्द्रिय, मनबुद्ध्यादिरूप अपरा प्रकृति का अधिष्ठाता हो जाता है, तब उसे ‘अध्यात्म’ कहते हैं। अतएव सातवें अध्याय के उनतीसवें श्लोक में भगवान् ने ‘कृत्स्न’ विशेषण के साथ जो ‘अध्यात्म’ शब्द का प्रयोग किया है, उसका अर्थ ‘चेतन जीवसमुदाय’ समझना चाहिये। भगवान् की अंशरूपा चेतन परा प्रकृति वस्तुतः भगवान् से अभिन्न होने के कारण वह ‘अध्यात्म’ नामक सम्पूर्ण जीवसमुदाय भी यथार्थ में भगवान् से अभिन्न और उनका स्वरूप ही है।
➡ प्रश्न – भूतों के भाव को उत्पन्न करने वाला विसर्ग-त्याग ही कर्म के नाम से कहा गया है, इसका क्या तात्पर्य है?
➡ उत्तर – ‘भूत’ शब्द चराचर प्राणियों का वाचक है। इन भूतों के भाव का उद्भव और अभ्युदय जिस त्याग से होता है, जो सृष्टि-स्थिति का आधार है, उस ‘त्याग’ का नाम ही कर्म है। महाप्रलय में विश्व के समस्त प्राणी अपने-अपने कर्म-संस्कारों के साथ भगवान् में विलीन हो जाते हैं। फिर सृष्टि के आदि में भगवान् जब यह संकल्प करते हैं कि ‘मैं एक ही बहुत हो जाऊँ’, तब पुनः उनकी उत्पत्ति होती है। भगवान् का यह ‘आदि संकल्प’ ही अचेतन प्रकृतिरूप योनि में चेतनरूप बीज की स्थापना करना है। यही जड़-चेतन का संयोग है। यही महान् विसर्जन है और इसी विसर्जन या त्याग का नाम ‘विसर्ग’ है। इसी से भूतों के विभिन्न भावों का उद्भव होता है इसीलिये भगवान् ने कहा है- ‘सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत।’ ‘उस जड़-चेतन के संयोग से सब भूतों की उत्पत्ति होती है।’ यही भूतों के भाव का उद्भव है।
अतएव यहाँ यह समझना चाहिये कि भगवान् के जिस आदि संकल्प से समस्त भूतों का उद्भव और अभ्युदय होता है, उसका नाम ‘विसर्ग’ है। और भगवान् के इस विसर्गरूप महान् कर्म से ही जड़-अक्रिय प्रकृति स्पन्दित होकर क्रियाशीला होती है तथा उससे महाप्रलय तक विश्व में अनन्त कर्मों की अखण्ड धारा बह चलती है। इसलिये इस ‘विसर्ग’ का नाम ही ‘कर्म’ है। सातवें अध्याय के उनतीसवें श्लोक में भगवान् ने इसी को ‘अखिल कर्म’ कहा है। भगवान् का यह भूतों के भाव का उद्भव करने वाला महान् ‘विसर्जन’ ही एक महान् समष्टि-यज्ञ है। इसी महान् यज्ञ से विविध लौकिक यज्ञों की उद्भावना हुई है और उन यज्ञों में जो हवि आदि का उत्सर्ग किया जाता है, उसका नाम भी ‘विसर्ग’ ही रखा गया है। उन यज्ञों से भी प्रजा की उत्पत्ति होती है। मनुस्मृति में कहा है-
अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते।
आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं ततः प्रजाः।।
अर्थात ‘वेदोक्त विधि से अग्नि में दी हुई आहुति सूर्य में स्थित होती है, सूर्य से वृष्टि होती है, वृष्टि से अन्न होता है और अन्न से प्रजा होती है।’ यह ‘कर्म’ नामक विसर्ग वस्तुतः भगवान् का ही आदि संकल्प है, इसलिये यह भी भगवान् से अभिन्न ही है।
Ans Q2 of Ch8 How God can remain in our remembrance at the time of death.8:5-8
“What you think is what you become”
What thoughts one carries at the time of death, determines the subsequent life. Whole chapter is intended to prepare you how for present life to live fulfilled and attaining after death also a place in Param Dham – Golak varndavan 8:5
How God can be remembered uninterruptible – Nitya – continuously. 5-8
Part 1 ——— Background
A) There are three types of people :
Belongingness is of this world – but do all Bhakti kand, Abhyas may be reading BG, Donations all.
Belongingness to Krishna – but performing duties knew well all is giver, protector and sustenance is Krishna.V. satisfying.
Grossely confused – Agyani – Devi, Devta different Kands, Dwaita, Adwaita. Let us see our present approach while living in this world: Bhogbudhi TatvaGyani PremiBhakt
B) Now let us see how worlds keep us entangled:
People , things, karm in the form Aaskti, Moha, Kamna, Rag , Sakam karmas.
Ex: whole night sitting in a Boat, Navik kept doing his work of chaupring – But did not moved. where is the fault did not entangle the rope. Dettached, Anaskt not happened.
C) Note to choose the way: Karam Yogi and Gyan yogi are laukik, Sansarik, But Bhakti yogi is Alokik not materialistic it is a Bhwna emotion of thing. God is doer. Need right diagnosis than can reach the Destination Goal Attaining the supreme while in the state of remembrance of God at the time of death.
D) Imbibe the Truth 15:7 Maimaivamso jiva-loke
8:9 Krishna is every thing-Ruler, sustainerfar beyond the darkness of ignorance.
Our belonging is to Krishna repeatedly mentioning from Ch2 We are Souls and particle of God and physical body is one of the energy to serve him through this world not for your purpose and will very enjoyable. Our Aadhar caretaker is Krishna. God emphatically says “ thinking of whatever entity one leaves the body at the time of death, that and that one attains.”1st requires your acceptance ( Swakrity) Krishna is sarve sarva. Imbibe the Truth 15:7 Maimaivamso jiva-loke8:9 Krishna is everything-Ruler, sustainer far beyond the darkness of ignorance. Our belonging is to Krishna repeatedly mentioning from
Ch2. We are Souls and particle of God and our physical body is one of the means – energy to serve him through our duty as dharma not for your selfish greeds but for welfare of society as a service to Krishna. Our Aadhar caretaker is Krishna.
Now practice
8: 7,8 Once you have accepted Me with mind and reason and even while fighting means carrying prescribed duty you can remember me. As wife never forgets ever in all situations I am wife of such and such like Brahmana. Finally God says “You should always think of me in the form of Krishna at the same time carry out your prescribed Duty. With your activities dedicated to me, you will attain Me without doubt.” 8:12-14 is preparation & shudhi of Antahkaran based on Yoga , Meditation and continuously imbibing knowledge of BG.
अष्टम अध्याय श्र्लोक {5} ⬇
➡ सम्बन्ध – इस प्रकार
अर्जुन के छः प्रश्नों का उत्तर देकर अब
भगवान् अन्तकाल सम्बन्धी सातवें प्रश्न का उत्तर आरम्भ करते हैं-
🔹 अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् ।
य: प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय:।। 5 ।।
🔸 जो पुरुष अंतकाल में भी मुझको ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग करता है, वह मेरे साक्षात स्वरूप को प्राप्त होता है- इसमें कुछ भी संशय नहीं है।।5।।
➡ प्रश्न – यहाँ ‘अन्तकाले’ इस पद के साथ ‘च’ के प्रयोग करने का क्या अभिप्राय है?
➡ उत्तर – यहाँ ‘च’ अव्यय ‘अपि’ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इससे अन्तकाल का विशेष महत्त्व प्रकट किया है। अतः भगवान् के कहने का यहाँ यह भाव है, कि जो सदा-सर्वदा मेरा अनन्य चिन्तन करते हैं उनकी तो बात ही क्या है, जो इस मनुष्य-जन्म के अन्तिम क्षण तक भी मेरा चिन्तन करते हुए शरीर त्यागकर जाते हैं उनको भी मेरी प्राप्ति हो जाती है।
➡ प्रश्न – ‘माम्’ पद किसका वाचक है?
➡ उत्तर – जिस समग्ररूप के वर्णन की भगवान् ने सातवें अध्याय के प्रथम श्लोक में प्रतिज्ञा की थी, जिसका वर्णन सातवें अध्याय के तीसवें श्लोक में किया है, ‘माम्’ पद यहाँ उसी समग्र का वाचक है। समग्र में भगवान् के सभी स्वरूप आ जाते हैं, इसलिये यदि कोई किसी एक स्वरूप विशेष का भगवद्बुद्धि से स्मरण करता है तो वह भी भगवान् का ही स्मरण करता है। तथा भगवान् के भिन्न-भिन्न अवतारों से सम्बन्ध रखने वाले नाम, गुण, प्रभाव और लीला-चरित्र आदि भी भगवान् की स्मृति हेतु हैं, अतः उनको याद करने से साथ-साथ भगवान् की स्मृति भी अपने-आप हो जाती है; अतः नाम, गुण, प्रभाव और लीलाचरित्र आदि का स्मरण करना भी भगवान् का ही स्मरण है।
➡ प्रश्न – ‘एव’ का क्या अभिप्राय है?
➡ उत्तर – यहाँ ‘माम्’ और ‘स्मरन्’ के बीच में ‘एव’ पद देकर भगवान् यह बतलाते हैं कि वह माता-पिता, भाई-बन्धु, स्त्री-पुत्र, धन-ऐश्वर्य, मान-प्रतिष्ठा और स्वर्ग आदि किसी का भी स्मरण न करके केवल मेरा ही स्मरण करता है। स्मरण चित्त से होता है और ‘एव’ पद दूसरे चिन्तन का सर्वथा अभाव दिखलाकर यह सूचित करता है कि उसका चित्त केवल एकमात्र भगवान् में ही लगा है।
➡ प्रश्न – यहाँ मद्भाव की प्राप्ति का क्या अभिप्राय है? सायुज्यादि मुक्तियों में से किसी मुक्ति को प्राप्त हो जाना है या निगुर्ण ब्रह्म को प्राप्त होना?
➡ उत्तर – यह बात साधक की इच्छा पर निर्भर है; उसकी जैसी इच्छा होती है, उसी के अनुसार वह भगवद्भाव को प्राप्त होता है। प्रश्न की सभी बातें भगवद्भाव के अन्तर्गत हैं।
➡ प्रश्न – इसमें कुछ भी संशय नहीं है- इस कथन का क्या अभिप्राय है?
➡ उत्तर – इस वाक्य से यह भाव दिखलाया गया है कि अन्तकाम में भगवान् का स्मरण करने वाला मनुष्य किसी भी देश और किसी भी काल में क्यों न मरे एवं पहले के उसके आचरण चाहे जैसे भी क्यों न रहे हों, उसे भगवान् की प्राप्ति निःसन्देह हो जाती है। इसमें जरा भी शंका नहीं है।
अष्टम अध्याय श्र्लोक {6} ⬇
➡ सम्बन्ध – यहाँ यह बात कही गयी कि भगवान् का स्मरण करते हुए मरने वाला भगवान् को ही प्राप्त होता है। इस पर यह जिज्ञासा होती है कि केवल भगवान् के स्मरण के सम्बन्ध में ही यह विशेष नियम है या सभी के सम्बन्ध में है? इस पर कहते हैं-
🔹 यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावित:।। 6 ।।
🔸 हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! यह अंतकाल में जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, उस-उस को ही प्राप्त होता है; क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित रहा है।।6।।
➡ प्रश्न – यहाँ ‘भाव’ शब्द किसका वाचक है? और उसे स्मरण करना क्या है?
➡ उत्तर – ईश्वर, देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग, वृक्ष, मकान, जमीन आदि जितने भी चेतन और जड़ पदार्थ हैं, उन सबका नाम ‘भाव’ है। अन्तकाल में किसी भी पदार्थ का चिन्तन करना, उसे स्मरण करना है।
➡ प्रश्न – ‘अन्तकाल’ किस समय का वाचक है?
➡ उत्तर – जिस अन्तिम क्षण में इस स्थूल देह से प्राण, इन्द्रिय, मन और बुद्धि सहित जीवात्मा का वियोग होता है, उस क्षण को अन्तकाल कहते हैं।
➡ प्रश्न – तेरहवें अध्याय के इक्कीसवें श्लोक में तथा चौदहवें, अध्याय के चौदहवें पंद्रहवें और इठारहवें श्लोकों में भगवान् ने सत्त्व, रज, तम- इन तीनों गुणों को अच्छी-बुरी योनियों की प्राप्ति में हेतु बतलाया है और यहाँ अन्तकाल के स्मरण को कारण माना गया है- यह क्या बात है?
➡ उत्तर – मनुष्य जो कुछ भी कर्म करता है, वह संस्कार रूप से उसके अन्तःकरण में अंकित हो जाता है। इस प्रकार के असंख्य कर्म-संस्कार अन्तःकरण में भरे रहते हैं; इस संस्कारों के अनुसार ही, जिस समय जैसा सहकारी निमित्त मिल जाता है; वैसी ही वृत्ति और स्मृति होती है। जब सात्त्विक कर्मों की अधिकता से सात्त्विक संस्कार बढ़ जाते हैं, उस समय मनुष्य सत्त्वगुणप्रधान हो जाता है और उसी के अनुसार स्मृति भी सात्त्विक होती है। इसी प्रकार राजस-तामस कर्मों की अधिकता से राजस, तामस संस्कारों के बढ़ने पर वह रजोगुण या तमोगुण प्रधान हो जाता है और उसके अनुसार स्मृति होती है। इस तरह कर्म, गुण और स्मृति, तीनों की एकता होने के कारण इसमें से किसी को भी भावी योनि की प्राप्ति में हेतु बतलाया जाय तो कोई दोष नहीं है; क्योंकि वस्तुतः बात एक ही है।
➡ प्रश्न – अन्तसमय में देव, मनुष्य, पशु, वृक्ष आदि सजीव पदार्थों का स्मरण करते हुए मरने वाला उन-उन योनियों को प्राप्त हो जाता है, यह बात तो ठीक है; किंतु जो मनुष्य जमीन, मकान आदि निर्जीव जड़ पदार्थों का चिन्तन करता हुआ मरता है, वह उनको कैसे प्राप्त होता है?
➡ उत्तर – जमीन, मकान आदि का चिन्तन करते-करते मरने वाले को अपने गुण और कर्मानुसार अच्छी-बुरी योनि मिलती है और उस योनि में वह अन्त समय की वासना के अनुसार जमीन, मकान आदि जड़ पदार्थों को प्राप्त होता है। अभिप्राय यह है कि वह जिस योनि में जन्मेगा, उसी योनि में उन स्मरण किये हुए जमीन, मकान आदि से उसका सम्बन्ध हो जायगा। जैसे मकान का मालिक मकान को अपना समझता है, वैसे ही उसमें घोंसला बनाकर रहने वाले पक्षी और बिल बनाकर रहने वाले चूहे और चींटी आदि जीव भी उसे अपना ही समझते हैं; अतः यह समझना चाहिये कि प्रत्येक योनि में प्रत्येक जड़ वस्तु की प्राप्ति प्रकारान्तर से हो सकती है।
➡ प्रश्न – ‘सदा तद्भावभावितः’ से क्या अभिप्राय है?
➡ उत्तर – मनुष्य अन्तकाल में जिस भाव का स्मरण करता हुआ शरीर त्याग करता है, वह उसी भाव को प्राप्त होता है- यह सिद्धान्त ठीक है परंतु अन्तकाल में किस भाव का स्मरण क्यों होता है, यह बतलाने के लिये ही भगवान् ‘सदा तद्भावभावितः’ कहते हैं। अर्थात् अन्तकाल में प्रायः उसी भाव का स्मरण होता है जिस भाव से चित्त सदा भावित होता है। जैसे वैद्य लोग किसी औषध में बार-बार किसी रस की भावना दे-देकर उसको उस रस से भावित कर लेते हैं वैसे ही पूर्वसंस्कार, संग, वातावरण, आसक्ति, कामना, भय और अध्ययन आदि के प्रभाव से मनुष्य जिस भाव का बार-बार चिन्तन करता है, वह उसी से भावित हो जाता है। ‘सदा’ शब्द से भगवान् ने निरन्तरता का निर्देश किया है। अभिप्राय यह है कि जीवन में सदा-सर्वदा बार-बार दीर्घकाल तक जिस भाव का अधिक चिन्तन किया जाता है उसी का दृढ़ अभ्यास हो जाता है। यह दृढ़ अभ्यास ही ‘सदा तद्भाव से भावित’ होना है और यह नियम है कि भाव का दृढ़ अभ्यास होता है उसी भाव का अन्तकाल में प्रायः अनायास ही स्मरण होता है।
➡ प्रश्न – क्या सभी को अन्तकाल में जीवनभर अधिक चिन्तन किये हुए भाव का ही स्मरण होता है?
➡ उत्तर – अधिकांश को तो ऐसा ही होता है। परंतु कहीं-कहीं जड़ भरत के चित्त में हरिण के बच्चे की भावना की भाँति मृत्यु-समय के समीपवर्ती काल में किया हुआ अल्पकाल का चिन्तन भी पुराने अभ्यास को दबाकर दृढ़रूप में प्रकट हो जाता है और उसी का स्मरण करा देता है।
➡ प्रश्न – ‘तद्भावभावितः’ पद का अन्वय दूसरी प्रकार करके यदि यह अर्थ मान लिया जाय कि मनुष्य अन्तकाल में जिस-जिस भी भाव का स्मरण करता हुआ शरीर को छोड़कर जाता है, निरन्तर उस भाव से भावित होते-होते उस-उसको ही प्राप्त हो जाता है, तो क्या हानि है?
➡ उत्तर – इसमें हानि की तो कोई बात ही नहीं है। इससे तो यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि मनुष्य मरने के साथ तुरंत ही अन्तकाल में स्मरण किये हुए भाव को पूर्णतया प्राप्त नहीं होता। मरने के बाद सूक्ष्मरूप से अन्तःकरण में अंकित हुए उस भाव से भावित होता-होता निश्चित समय पर ही उस भाव को पूर्णतया प्राप्त होता है। किसी मनुष्य का छायाचित्र (फोटो) लेते समय जिस क्षण फोटो (चित्र) खींचा जाता है उस क्षण में वह मनुष्य जिस प्रकार से स्थित होता है, उसका वैसा ही चित्र उतर जाता है; उसी प्रकार अन्तकाल में मनुष्य जैसा चिन्तन करता है वैसे ही रूप का फोटो उसके अन्तःकरण में अंकित हो जाता है। उसके बाद फोटो की भाँति अन्य सहकारी पदार्थों की सहायता पाकर उस भाव से भावित होता हुआ वह समय पर स्थूल रूप को प्राप्त हो जाता है।
यहाँ अन्तःकरण ही कैमरे का प्लेट है, उसमें होने वाला स्मरण ही प्रतिबिम्ब है और अन्य सूक्ष्म शरीर की प्राप्ति ही चित्र खींचना है; अतएव जैसे चित्र लेने वाला सबको सावधान करता है और उसकी बात न मानकर इधर-उधर हिलने-डुलने से चित्र बिगड़ जाता है, वैसे ही सम्पूर्ण प्राणियों का चित्र उतारने वाले भगवान् मनुष्य को सावधान करते हैं कि ‘तुम्हारा फोटो उतरने का समय अत्यन्त समीप है पता नहीं वह अन्तिम क्षण कब आ जाय; इसलिये तुम सावधान हो जाओ, नहीं तो चित्र बिगड़ जायगा।’ यहाँ निरन्तर परमात्मा के स्वरूप का चिन्तन करना ही सावधान होना है और परमात्मा को छोड़कर अन्य किसी का चिन्तन करना ही अपने चित्र को बिगाड़ना है।
अष्टम अध्याय श्र्लोक {7} ⬇
➡ सम्बन्ध – अन्तकाल में जिसका स्मरण करते हुए मनुष्य मरता है, उसी को प्राप्त होता है; और अन्तकाल में प्रायः उसी भाव का स्मरण होता है, जिसका जीवन में अधिक स्मरण किया जाता है। यह निर्णय हो जाने पर भगवत्प्राप्ति चाहने वाले के लिये अन्तकाल में भगवान् का स्मरण रखना अत्यन्त आवश्यक हो जाता है और अन्तकाल अचानक ही कब आ जाय, इसका कुछ पता नहीं है; अतएव अब भगवान् निरन्तर भजन करते हुए ही युद्ध करने के लिये अर्जुन को आदेश करते हैं-
🔹 तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च ।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्।। 7 ।।
🔸 इसलिये हे अर्जुन! तू सब समय में निरंतर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर। इस प्रकार मुझमें अर्पण किये हुए मन-बुद्धि से युक्त होकर तू नि:संदेह मुझको ही प्राप्त होगा।।7।।
➡ प्रश्न – यहाँ ‘तस्मात्’ पद का क्या अभिप्राय है?
➡ उत्तर – उपर्युक्त दो श्लोकों में कहे हुए अर्थ के साथ इस श्लोक का सम्बन्ध दिखलाने के लिये यहाँ ‘तस्मात्’ पद का प्रयोग किया गया है। अभिप्राय यह है कि यह मनुष्य-शरीर क्षणभंगुर है, काल का कुछ भी भरोसा नहीं है तथा जिसका अधिक चिन्तन होता है वही भाव अन्त में स्मरण होता है। यदि भगवान् का स्मरण निरन्तर नहीं होगा और विषयभोगों का स्मरण करते-करते ही शरीर का वियोग हो जायेगा तो भगवत्प्राप्ति का द्वाररूप यह मनुष्य जीवन व्यर्थ ही चला जायगा। इसलिये निरन्तर भगवान् का स्मरण करना चाहिये।
➡ प्रश्न – यहाँ भगवान् ने जो अर्जुन को सब काल में अपना स्मरण करने के लिये कहा, सो तो ठीक ही है; किंतु युद्ध करने के लिये कहने का क्या अभिप्राय है?
➡ उत्तर – अर्जुन क्षत्रिय थे, धर्मानुसार उनको युद्ध का अवसर प्राप्त हो गया था। धर्मयुद्ध क्षत्रिय के लिये वर्णधर्म है; इसलिये यहाँ ‘युद्ध’ शब्द को वर्णाश्रम धर्म का पालन करने के लिये की जाने वाली सभी क्रियाओं का उपलक्षण समझना चाहिये। भगवान् की आज्ञा समझकर निष्कामभाव से वर्णाश्रमधर्म का पालन करने के लिये जो कर्म किये जाते हैं, उनसे अन्तःकरण की शुद्धि होती है। इसके सिवा कर्तव्यकर्म के आचरण की आवश्यकता का प्रतिपादन करने वाले और भी बहुत-से महत्त्वपूर्ण कारण तीसरे अध्याय के चौथे से तीसवें श्लोक तक दिखलाये गये हैं, उन पर विचार करने से भी यही सिद्ध होता है कि मनुष्य को वर्णाश्रमधर्म के अनुसार कर्तव्यकर्म अवश्य ही करने चाहिये। यही भाव दिखलाने के लिये यहाँ युद्ध करने को कहा गया है।
➡ प्रश्न – यहाँ ‘च’ के प्रयोग का क्या अभिप्राय है?
➡ उत्तर – ‘च’ का प्रयोग करके भगवान् ने युद्ध को गौणता और स्मरण को प्रधनता दी है। भाव यह है कि युद्ध आदि वर्णधर्म के कर्म तो प्रयोजन और विधान के अनुसार नियत समय पर ही किये जाते हैं और वैसे ही करने भी चाहिये, परंतु भगवान् का स्मरण तो मनुष्य को हर समय हर हालत में अवश्य करना चाहिये।
➡ प्रश्न – भगवान् का निरन्तर चिन्तन और युद्ध आदि वर्णधर्म के कर्म, दोनों एक साथ कैसे हो सकते हैं?
➡ उत्तर – हो सकते हैं; साधकों की भावना, रुचि और अधिकार के अनुसार इसकी भिन्न-भिन्न युक्तियाँ हैं। जो भगवान् के गुण और प्रभाव को भलीभाँति जानने वाला अनन्यप्रेमी भक्त है, जो सम्पूर्ण जगत् को भगवान् के द्वारा ही रचित और वास्तव में भगवान् से अभिन्न तथा भगवान् की क्रीड़ास्थली समझता है, उसे प्रह्लाद और गोपियों की भाँति प्रत्येक परमाणु में भगवान् के दर्शन प्रत्यक्ष की भाँति होते रहते हैं; अतएव उसके लिये तो निरन्तर भगवत्स्मरण के साथ-साथ अन्यान्य कर्म करते रहना बहुत आसान बात है। तथा जिसका विषयभोगों में वैराग्य होकर भगवान् मे मुख्य प्रेम हो गया है, जो निष्काम भाव से केवल भगवान् की आज्ञा समझकर भगवान् के लिये ही वर्णधर्म के अनुसार कर्म करता है, वह भी निरन्तर भगवान् का स्मरण करता हुआ अन्यान्य कर्म कर सकता है। जैसे अपने पैरों का ध्यान रखती हुई नटी बाँस पर चढ़कर अनेक प्रकार के खेल दिखलाती है, अथवा जैसे हैंडल पर पूरा ध्यान रखता हुआ मोटर-ड्राइवर दूसरों से बातचीत करता है और विपत्ति से बचने के लिये रास्ते की ओर भी देखता रहता है, उसी प्रकार निरन्तर भगवान् का स्मरण करते हुए वर्णाश्रम के सब काम सुचारु रूप से हो सकते हैं।
➡ प्रश्न – मन-बुद्धि को भगवान् में समर्पित कर देना क्या है?
➡ उत्तर – बुद्धि से भगवान् के गुण, प्रभाव, स्वरूप, रहस्य और तत्त्व को समझकर परमश्रद्धा के साथ अटल निश्चय कर लेना और मन से अनन्य श्रद्धा-प्रेमपूर्वक गुण, प्रभाव के सहित भगवान् का निरन्तर चिन्तन करते रहना-यही मन-बुद्धि को भगवान् में समर्पित कर देना है। छठे अध्याय के अन्त में भी ‘मद्गतेनान्तरात्मना’ पद से यही बात कही गयी है।
Q3 of Ch8 How God can be remembrance through yoga system and Bhakti? 9-16
Spiritual World This Paro Prakarti, Pure, transcendental, Param.
Krishna – Everywhere
The word abhyāsa means practice—the training and habituating of the mind to meditate upon God. Such practice is to be done, not at fixed times of the day at regular intervals, but continuously, along with all the daily activities of life. When the mind is attached to God, it will get purified, even while performing worldly duties. It is important to remember that what we think with our mind fashions our future, not the actions we perform with our body. It is the mind that is to be engaged in devotion, and it is the mind that is to be surrendered to God. And when the absorption of the consciousness in God is complete, one will receive the divine grace. By God’s grace, one will attain liberation from material bondage, and will receive the unlimited divine bliss, divine knowledge, and divine love of God. Such a soul will become God-realized in this body itself, and upon leaving the body, will go to the Abode of God.
Ans Q4 Ch8 Explain how material & Spiritual world are created? 17-22
17-19 Material world through Brahma day and night process as a magician at the time of awakening as well at the time of sleep.
20-22 It is ever existing JIYON KA TYAON – can never be created a or demolished this is PARAM DHAM.
8:21 Param Dham – Jiyon Ka Tyon Chintamani –Vaikuntha Dham, param Pavitra, Param Vishram, Param Sukh, Param Shanti, Param Shakti Krishna, You are hareKrishna, You are there Krishna, You are indeed everywhere. So all I really need to do Is fully give my love to You. With my feelings so imbued All calamaties will be through. There’s nothing greater than this. It’s a life of eternal bliss In which nothing is a miss. And I’m saved from death’s abyss.
Let us integrate wisely through Knowing Gyan(Nirguna) Vigyan (Saguna)Yog.
Bhakti OR Krishna consciousness is sublime process a jump directly to attain supreme not karam wise step by step. Bhagvadgita knowledge is Transcendental:
अतीद्रिंय, अनुभवातीत , भावातीतगीता गीत है, गति है, प्रगति है, गीता ही परमगति है !भगवद्गीता के पन्द्रहवें अध्याय में भौतिक जगत का जीता जागता चित्रण हुआ है । कहा गया है :उर्ध्वमूलमधःशाखमश्र्वत्थं प्राहुरव्ययम् | छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् || १ ||यहाँ पर भौतिक जगत का वर्णन वृक्ष के रुप में हुआ है जिसकी जड़ें उर्ध्व मुखी हैं और शाखाएँ अधोमुखी हैं । हमें ऐसे वृक्ष का अनुभव है, जिसकी जड़ें उर्ध्व मुखी हों : यदि कोई नदी या जलाशय के किनारे खड़ा होकर जल में वृक्षों का प्रतिबिम्ब देखे तो उसे सारे वृक्ष उल्टे दिखेंगे । शाखाएँ नीचे की ओर जड़ें ऊपर की ओर दिखेंगी । इसी प्रकार यह भौतिक जगत भी आध्यात्मिक जगत का प्रतिबिम्ब है । यह जगत वास्तविकता या सार नहीं होता, लेकिन प्रतिबिम्ब से हम यह समझ लेते हैं कि वस्तु तथा वास्तविकता हैं । इसी प्रकार यद्यपि मरुस्थल में जल नहीं होता, लेकिन मृग-मरीचिका बताती है कि जल जैसी कोई वस्तु होती है । भौतिक जगत में न तो जल है, न सुख है, लेकिन आध्यात्मिक जगत में वास्तविक सुख-रूपी असली जल है ।
Q.5 Ch8 23-28 How to attain the supreme means PRAM DHAM.
Let us know We are either:
1.Karmis – seek experience and continue in a circle of SAMSARA
2. Upasak knower of this knowledge gets salvation.
Attaining the supreme is our Goal of this chapter and stated in 7:29 ,therefore now become Upasak through
Shravana, Manana & Nidhidhyasana.
पदमव्ययं अर्थात् सनातन राज्य (धाम) को वही प्राप्त होता है जो निर्मान-मोहा है । इसका अर्थ क्या हुआ? हम उपाधियों के पीछे पड़े रहते हैं । कोई ‘महाशय’ बनना चाहता है, कोई ‘प्रभु’बनना चाहता है, तो कोई राष्ट्रपति, धनवान या राजा या कुछ और बनना चाहता है । परन्तु जब तक हम इन उपाधियों से चिपके रहते हैं तब तक हम शरीर के प्रति आसक्त बने रहते हैं, क्योंकि ये उपाधियाँ शरीर से सम्बन्धित होती है ।
लेकिन हम शरीर नहीं हैं, और इसकी अनुभूति होना ही आत्म-साक्षात्कार की प्रथम अवस्था है । हम प्रकृति के तीन गुणों से जुड़े हुए हैं,किन्तु भगवद्भक्ति मय सेवा द्वारा हमें इनसे छूटना होगा । यदि हम भगवद्भक्ति मय सेवा के प्रति आसक्त नहीं होते तो प्रकृति के गुणों से छूट पाना दुष्कर है । उपाधियाँ तथा आसक्तियाँ हमारी काम वासना तथा इच्छा अर्थात् प्रकृति पर प्रभुत्व जताने की चाह के कारण हैं । जब तक हम प्रकृति पर प्रभुत्व जताने की प्रवृत्ति को नहीं त्यागते तब तक भगवान् के धाम, सनातन धाम,को वापस जाने की कोई सम्भावना नहीं है । इस नित्य अविनाशी धाम को वही प्राप्त होता है जो झूठे भौतिक भोगों के आकर्षणों द्वारा मोहग्रस्त नहीं होता, तो भगवान् की सेवा में स्थित रहता है । ऐसा व्यक्ति सहज ही परम धाम को प्राप्त होता है ।